Dec 18, 2024

राम नाथ सिंह "अदम गोंडवी" ने आज के ही दिन छोड़ी थी दुनिया, उनकी रचनाओं के माध्यम से श्रद्धांजलि!

 


रामनाथ सिंह अदम गोंडवी का परिनिर्वाण दिवस आज


मां वाराही न्यूज की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि 


करनैलगंज/गोण्डा - जनकवि रामनाथ सिंह अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्टूबर 1947 को जनपद गोण्डा के आंटा परसपुर स्थित गजराज पुरवा के देवकली सिंह के घर हुआ। उनका पहले नाम रामनाथ सिंह था, जिन्हें आगे चलकर काव्य-जगत में ‘अदम गोंडवी’ नाम की पदवी मिली। अदम गोंडवी जी को हिंदी में दुष्यंत कुमार के बाद दूसरा सबसे लोकप्रिय कवि-ग़ज़लकार माना जाता है। उनकी कविता ‘मनुष्यता की मातृभाषा’ में निर्धनों, वंचितों, दलितों, श्रमिकों और उत्पीड़न का शिकार स्त्रियों की फ़रियाद और व्यथा लेकर आती हैं। इस रूप में वह ‘जनता के कवि’ होने की पूरी हैसियत रखते हैं।उनकी कविताएँ समकालीन सामाजिक-राजनीतिक समय पर मारक टिप्पणी की सूरत में दख़ल रखती हैं। जहां व्यंग्य उनका हथियार है और प्रतिरोध उनका तेवर है। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विडंबना और विद्रूपता पर उनके पास असरदार और यादगार कविताएँ हैं। सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में उनके ग़ज़ल की पंक्तियाँ बार-बार उद्धृत होती रहती हैं, मसलन यह—

आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को


मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को।

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है।

ख़ुद को ज़ख़्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो।

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे पारलौकिक प्रेम का मधुमास लेकर क्या करें।

ग़ैरत मरी तो वाक़ई इंसान मर गया।



अदम की रचनाएं


‘धरती की सतह पर’, ‘समय से मुठभेड़’ और ‘गर्म रोटी की महक’ उनके तीन कविता-ग़ज़ल-संग्रह हैं। 



इन पुरस्कारो से नवाजे गए अदम गोंडवी 


1998 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया। हिंदी के साथ ही अवधी में उनके योगदान के लिए उन्हें माटी रतन सम्मान से नवाज़ा गया।


आम आदमी की सशक्त आवाज रहे अदम गोंडवी ने दिसंबर 18, 2011 को लखनऊ पीजीआई में इलाज के दौरान दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से वह आज भी जिंदा हैं।


राम नाथ सिंह अदम गोंडवी को बुलंदियों पर ले जानी वाली उनकी यह रचना


आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा, ‘काका, तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िंदा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें’

बोला कृष्ना से – ‘बहन, सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से’

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर

देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर

‘क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया

कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ

पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

न पुट्ठे पे हाथ रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई

जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी’

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी सँभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –

‘जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने’

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर

इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर, ‘माल वो चोरी का तूने क्या किया?’

‘कैसी चोरी माल कैसा?’ उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर –

“मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो”

और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं’

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल-से

आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, ‘इनको डंडों से सुधारा जाएगा

ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा’

इक सिपाही ने कहा, ‘साइकिल किधर को मोड़ दें

होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें’

बोला थानेदार, ‘मुर्गे की तरह मत बाँग दो

होश में आया नहीं तो लाठियों पर टाँग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है

ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है’

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल

‘कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल’

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म, संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को

प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में

तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए

बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए।

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